ज़ुल्म सहकर भी जो चुप रहा, वो अंदर ही अंदर रोज़ मरता रहा।
चुप रहोगे तो ज़ुल्म बढ़ेगा, आवाज़ उठाओगे तो अंधेरा हटेगा।
ज़ुल्म से टूटा है दिल मेरा, पर उम्मीद है कि आएगा सवेरा।
ज़ुल्म का भी एक वक्त आता है, जब] ज़ालिम खुद गिर जाता है।
कंधों पर ज़ुल्म का बोझ लिए चलते हैं, पर दिल में इंसाफ़ की लौ जलती है।
जब ज़ुल्म हदें पार करता है, तो बेबसी में भी बगावत बन जाती है
दुआओं में दर्द छुपा है बहुत, रब की अदालत में देर नहीं होती।
हर ज़ालिम को उसका अंजाम मिलेगा, सच बोलेगा और इंसाफ़ जीतेगा।
खामोश लब भी गवाही देते हैं, जब ज़ुल्म आँखों में उतर आता है।
जो रो नहीं सके, वो भी रोए अंदर से, ज़ुल्म हर किसी को तोड़ता है पैमाने पर।
ज़ुल्म से लड़ने को जो उठे हैं, वो इंकलाब के गीत लिखते हैं।