ग़ालिब की शायरी

हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का।               ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता।।

तुम न आए तो क्या सहर न हुई हाँ मगर चैन से बसर न हुई।

मेरा नाला सुना ज़माने ने एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।।

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे। होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।।

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना। आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।।

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को। ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।।

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’। कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था।।

तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना। कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।।

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है। वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।।

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा। कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है।।

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन। हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।।

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को। ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।