न मंजर है एसा  न जाम कोई  तेरी याद भुला दे एसी सूरत न कोई

शायरी  जो दिल को छू जाए

अब चुप रहने की आदत सी बन गई है   हर दर्द सहने की आदत सी बन गई है

फिरता है चाँद भी किसी तलाश मे हर रोज निकलता है नीले आकाश मे

ये जो महोबत्त की बातें थी  महज बातें थी महोबत्त न थी

सजाएगी गुलसन को फूलों की महक पतझड़ का मॉसम रहेगा कब तक

ए दिल कभी कभी एसा भी होता है  अश्क  बहते नहीं  पर दिल  बहुत रोता है   जिंदा तो हैं  मौत का   गूमा होता है

न मंजर है एसा  न जाम कोई   तेरी याद भुला दे एसी सूरत   न कोई

किसी   बेदर्द से  अशकों की कहानी कही नहीं  जाती   किसी बेवफा से इश्क की  खता  भी सही नहीं  जाती

तुझसे न गिला  न कोई सिखवा रहा अब     दर्द  आँसों मे  बह  गया  सब

अक्सर  दुनियाँ के हुजूम से डरती हूँ     खुद से ही खुद की बातें करती हूँ     भीड़ मे खुद को  तन्हा  महसूस करती हूँ      मैं महफ़िल मे तनहाई  तलास करती हूँ

होता है ए दिल यूँ भी होता है  बेपनाह महोंबत्त  हो  फिर भी तन्हा होता है

कह  नहीं पाए हम जुबां से हाल ए दिल        उनसे एक नज़्म  इजहार ए महोबत्त सुना दी               हमने भरी महफ़िल  मे