अज्ञान ही मृत्यु है ,और ज्ञान जीवन
भगवतगीता में हमें इस बात का बारम्बार उपदेश मिलता है , कि हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए
स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है |
हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तब्य करें जो हमारे हाथ में है
असंतुष्ट तथा तकरारी पुरुष के लिए सभी कर्तब्य नीरस होते हैं उसे तो कभी किसी चीज से संतोष नहीं होता
कर्मफल में आशक्ति रखने वाला ब्यक्ति अपने भाग में आए हुए कर्तब्य पर भिनभिनाता है अनाशक्त को सब कर्म समान हैं
कर्तब्य वहीं तक अच्छा है, जहाँ तक की यह पशुत्व भाव को रोकने में सहयता प्रदान करता है
सर्वश्रेष्ठ महांपुरुष अपने ज्ञान से किसी प्रकार की यशप्राप्ति की कामना नहीं रखते
निःस्वार्थता का अर्थ है _मैं यह क्षुद्र शरीर हूँ" से इस भाव से प्रे होना |
"भगवान के प्रति उत्कंठ प्रेम ही भक्ति है "
इन्द्रियों के या मन के सभी आनंद क्षणभंगुर हैं,