शेरो शायरी

इक दिल ही हैं जिसे समझा न सके    कि तुझे दिल से  हम भुला न सके

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मैं  हौंसला करती हूँ तुझे भूल जानी का  महोबत्त ढूढ लेती है बहाना  याद करने का

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बसर किस तरह हो जिंदगी गर तू न हो  एसे जीने से  अच्छा है जिंदगी न हो

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हिजर की दो चार घड़ी हो तो करार आए  मिलने की कोई सूरत न हो तो  कैसे सब्र आए

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किसे इल्जाम दें दर्द ए तनहाई का  ये इनाम है  मेरी महोबबत मे तबाही  का

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वो सितमगर था  मेरे दिल   उससे क्या गिला     ये बेहिसाब  हिज्र का  दर्द देने  को  वो हमसे मिला

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टूट कर महोबबत में जिसे दिल ने चाहा   भूलकर  खुद को  हमने   उसे  दिल  मे बसाया

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मुझमे  मेरे रब्बा अब क्या रह गया   महोबत्त का भ्रम भी मिट गया   सीसा ए दिल  बिखर गया   जुदाई   का गम उम्र  भर को दे गया

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फ़ना होने की तमन्ना महोबत्त मे वेवजह की नहीं जाती तिजारत की तरह  फिर किसी से महोबत्त हो  नहीजाती

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फ़ना होने की तमन्ना महोबत्त मे वेवजह की नहीं जाती तिजारत की रह  फिर किसी से महोबत्त हो  नहीजाती

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करू क्या ए दिल उसकी महोबत्त की अब  न दिल रहा न जुस्तजू न रूबरू न गुफ्तगू

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मलाल ये नहीं की हमने तुझे क्यू प्यार किया  रंज ये है की हमने तेरा  एतबार किया