Mirza Ghalib Shayari/मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी-–दोस्तों यूँ तो दुनियां अजीज और महानं शायरों से भरी हुई है , जो इस दुनियां में जिस्मानी रूप से तो नहीं हैं परन्तु उनकी शायरी में वो जिन्दा हैं यूँ तो दोस्तों में शायरी के बारे में इतना नहीं जानती की, इन महान शायरों की ब्याख्या कर सकूँ , पर जाने क्यों , मिर्जा ग़ालिब की शायरी , के लफ्ज में इक रूहानी , और आध्यात्मिक झलक मिलती है ,इसीलिए वे मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं | ग़ालिब के बारे में ये शेर यूँ ही जीवंत आज भी है।
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
ग़ालिब का जन्म आगरा में एक सैनिक परिवार में हुआ था। उन्होने अपने पिता को बचपन में ही खो दिया था,]ग़ालिब का जीवन यापन चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था[1 जो उनके चाचा को ईस्ट इण्डिया कम्पनी में कार्यरत होने से मिलती थी . जो उनके चाचा के बाद उनको मिलने लगी थी वे एक तुर्क परिवार से थे और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ख़ान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ख़ान उनके दो पुत्र थे।जब ग़ालिब मात्र पांच वर्ष के थे , उस वक़्त उनके पिता की मृत्यु हो गयी , यूँ ही मुफलिसी में गुजर बसर होने के बाद भी इनकी शायरी दिल को झकझोरने और रूमानी करने में कोई कसर नहीं छोडती
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Mirza Ghalib Shayari/मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी
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हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
ham ko maaloom hai jannat kee haqeeqat lekin
dil ke khush rakhane ko gaalib ye khayaal achchha hai
2-
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
ishq ne gaalib nikamma kar diya
varna ham bhee aadamee the kaam ke
3
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
mohabbat mein nahin hai farq jeene aur marane ka
usee ko dekh kar jeete hain jis kaafir pe dam nikale
4
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
is saadagee pe kaun na mar jae ai khuda
ladate hain aur haath mein talavaar bhee nahin
mirza ghalib shayari urdu
5
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
Mirza Ghalib
6
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे
Mirza Ghalib
7
नींद उस की है दिमाग़ उस का है रातें उस की हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिस के बाज़ू पर परेशाँ हो गईं
Mirza Ghalib
8
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
9
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझे वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
Mirza Ghalib
10
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए
Mirza Ghalib
11
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है
Mirza Ghalib
12
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
Mirza Ghalib
13
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता
Mirza Ghalib
14
होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
Mirza Ghalib
15
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब’
कोई दिन और भी जिए होते
Mirza Ghalib
16
क़त्अ कीजे न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
Mirza Ghalib
17
‘ग़ालिब’ न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
Mirza Ghalib
18
बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।Mirza Ghalib
19
यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों होMirza Ghalib
20
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा हैMirza Ghalib
21
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’,
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझेMirza Ghalib
22
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुईMirza Ghalib
Mirza Ghalib
23
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या हैMirza Ghalib
24
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का।
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता।।
25
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई।
26
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।।
27
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे।
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।।
28
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना।
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।।
29
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को।
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।।
30
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’।
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था।।
31
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना।
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।।
32
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है।
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।।
33
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा।
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है।।
34
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन।
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।।
35
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार।
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।।
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी।
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है।।
36
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को।
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।।
37
वाइज़!! तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख।
नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख।।
38
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब।
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।
39
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए।
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।।
40
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।।
41
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।।
42
\हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।
43
कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में।
पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।।
44
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का।
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।।
45
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां।
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।।
46
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक।
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक।।
47
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ।
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।।
48
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई।
दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।।
49
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना।
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।।
50
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’।
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।।
51
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है।
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।।
53
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’।
शर्म तुम को मगर नहीं आती।।
54
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़।
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
55
इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।
वर्ना हम भी आदमी थे काम के।।
56
बे-वजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
57
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
58
लफ़्ज़ों की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”।
हम तुम को याद करते हैं सीधी सी बात है।
59
मौत का एक दिन मुअय्यन है।
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती।
कोई उम्मीद बर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती।
लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में ,
और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते
60
हमारे शहर में गर्मी का यह आलम है ग़ालिब
कपड़ा धोते ही सूख जाता है
पहनते ही भीग जाता है
61
उम्र भर देखा किये, मरने की राह
मर गये पर, देखिये, दिखलाएँ क्या
62
की वफ़ा हम से, तो गैर उसको जफ़ा कहते हैं
होती आई है, कि अच्छो को बुरा कहते हैं
63
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही
64
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता !!
खुद को मनवाने का मुझको भी हुनर आता है
मैं वह कतरा हूं समंदर मेरे घर आता है
65
तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको,
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है ….
66
वो जो काँटों का राज़दार नहीं,
फ़स्ल-ए-गुल का भी पास-दार नहीं !!
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ !!
67
मैं नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के
एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
68
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।
खैरात में मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ग़ालिब,
मैं अपने दुखों में रहता हु नवावो की तरह।
69
ग़ालिब की शायरी हिंदी में
ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते,
कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।
70
हम न बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ,
जब भी मिलेंगे अंदाज पुराना होगा।
71
जब लगा था तीर तब इतना दर्द न हुआ ग़ालिब
ज़ख्म का एहसास तब हुआ
जब कमान देखी अपनों के हाथ में।
72
तुम अपने शिकवे की बातें
न खोद खोद के पूछो
हज़र करो मिरे दिल से
कि उस में आग दबी है
73
पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के,
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है
74
तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी
मेरा न बन सका , “ग़ालिब“
75
और दिल वो काफिर,
जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया
तेरे हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है “ग़ालिब”
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद
76
ख्वाहिशों का काफिला भी अजीब ही है “ग़ालिब”
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता