नदी पर कविता-हैल्लो /poem on river in hindi-दोस्तों आज हम बात करेंगे नदी की जी हाँ नदी जो हमारे जल का मुख्य स्रोत होती हैं , जिन्हें हम जीवन दायनी कहते हैं , आज हम इंसानों ने अपने स्वार्थ के लिए लापरवाही से और भ्र्ष्टाचार के चलते अपनी इन नदियों की इतनी अनदेखी करि है की , हमारे जीवन का जल के बिना विनास सम्भव है ,दोस्तों क्या आप जानते हैं की कभी इस देश में सरस्वती नदी भा करती थी ,पर आज नहीं है लुप्त हो गई है , सर्वास्ति का वर्णन हमरे वेदों और पुराणों में मिलता है , सोचो एक दिन ये साड़ी नदियां भी लुप्त हो जाएंगी फिर क्या इस धरती पर जीवन सम्भव है , नदियों के बिना हमारा जीवन क्या होगा इसी पर आधारित हमारी आज की कविता है , नदी उम्मीद है आपको जरूर पसंद आएगी धन्यबाद|
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नदी कविता हिंदी में
नदी पर कविता
-ओ! नदी अल्हड़ सी
कहाँ से तू भ निकली
कल कल छल चाल सी बहती
क्या तुझको कोई गम नहीं
-ओ नदी अल्हड़ सी
कहाँ से तू भ निकली
कल कल छल चाल सी बहती
क्या तुझको कोई गम नहीं
छोड़ अपना धाम तू
गावं गावं सहर चली
जिधर से बहती धूम मचाती
भूखों की भूख प्यासों की प्यास मिटाती
तू माँ है हे नदी
पोषण सबका तू करती
बालक हम सब तेरे नादान
मिटा दे सबका अज्ञान
माँ कह कर तुझको शीश नवाते
तुझसे ही सुख स्मरधी पाते
खेत खलिहान खुशहाल बनाते
अस्थि बहाकर मुक्ति हैं पाते
बना तट पर तेरे कलकारखाने
मैला सब तुझमे बहाते
तेरे दम पर सबकुछ पाते
अफसोस बच्चों का फर्ज नहीनिभाते
इक दिन जब तुम रूठ जाओगी
कल कल छल छल नहीं बहोगी
इक दिन जब तुम रूठ जाओगी
कल कल छल छल नहीं बहोगी
सुख सामरधि सब रूठ जाएगी
हरियाली सब सुख जाएगी
हेलो दोस्तों यहां पर नदियां आज हमसे कुछ सवाल पूछ रहीं हैं क्या हमारे पास इनको देने के लिए जवाब हैं ? ंदियूं का दर्द दर्शाती हुई यह कविता आपको क कैसी लगी जरूर बताइये कविता का शीर्षक है नदियां कहे पुकार के
कविता नदिया कहे पुकार के
आज नदिया कहती पुकार
न्याय के लिए करती गुहार
सुनो तुम मुझको मान कहते
गंगा यमुना कालिंदी कहते
परहित के लिए हम बहती
ऊँचे हिम सिखर से निकली
हम कितनी और पवन हो के निकली
तुमने हमको क्र दिया मैला और गंदली
रे ! मानव अपने विकास की राह पर
झूठे और विलासिता की चाहर कर
गया तू स्वार्थ के कारण कितना गिर
करता विकास हमारी अनदेखी कर ??
जल हमारा कितना मैला हुआ
पिने के लायक न छोड़ा विषैला हुआ
मैं माँ हूँ परहित मेरा धर्म है
तुझ सी स्वार्थी नहीं परोपकार मेरा धर्म है
पर तू सोच तू आज कहाँ खड़ा ??
वीमारी जब आई थी था घर में पड़ा
खड़े किए कितने महल फैक्ट्री तट पर
मैला कुचैले गंदे नाले डाल कर
मलिन पड़ी हूँआज मैं निर्मल गंगा
लाली नाली बनी आज कालिंदी
अनगिनत जल की धाराएं खत्म हुई
सुनी पड़ी आंगणो की बावड़ी
लुटाती आई हम तुज मानव पर
नदियां पर्वत और हरे भरे वैन वन
तू चलता रहा विकास पथ पर हमको कुचल कर
अपनी नदियों और प्रकृति को अनदेखा कर ???
सोच रे !! मानव तू कितना स्वार्थी है
जब आती आपदा उस पर दोष देता प्रकृति को
छीन लिए अनगिनत प्राणियों के घर
भवन विलासिता के लिए बनाए पेड़ काट कर
चली थीं हम अपने उद्गम से निर्मल नदी
बदले में हमको तूने दी गंदगी
पी के हमारा जल नर्मल तू तृप्त हुआ
फिर भी तू मानव क्यों इतना स्वार्थी हुआ ??
जम जाती है ज्यूँ धुल सीसे पर
जैसे काले बदल आसमान पर
छा जाता जैसे कोहरा ऊँचे सिखर पर
ढक दिया मानव ने अपना चरित्र स्वार्थी बनकर
छाए गयी मनवा मन पर
विकास की अंधी दौड़ ने दिया उसे पागल कर
भूल गया वो प्रकृति के साथ छल कर
ऐसी धूल जमी मानव के मन मस्तिष्क पर
जब जब अनदेखा किया मानव ने प्रकृति का मूल्य
चूड दिया तब तब उसने अपने नैतिक मूल्य
सहजता और शर्ला की राह छोड़ कर
बढ़ रहा मद मस्त सा विकास के पथ पर
रे !! मानव सचेत हो जा
कब तक सोएगा जाग सचेत हो जा ?
सुन चेतवानी इस धरा की
पतित पावनि इस निर्मल जल देवी की
सोच जब नदियां न होंगी ??
रिमझिम वर्षा न होगी ??
तब क्या तू विकास करेगा
जाग जा वरना तेरा अस्तित्व न होगा